(फिलेम दीपक सिंह)
नई दिल्ली, 10 दिसंबर (भाषा) सीधे शब्दों में कहें तो पीटी उषा अपने आप में एक पथप्रदर्शक हैं। ट्रैक स्पर्धाओं में अपने प्रदर्शन से 1980 के दशक में लगभग मरणासन्न भारतीय एथलेटिक्स को पुनर्जीवित करने से लेकर देश की शीर्ष खेल संस्था भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) के अध्यक्ष पद पर काबिज होने तक इस दिग्गज ने लाखों लोगों को प्रेरित करना जारी रखा है।
अधिकांश लोग उन्हें उनकी जीत के असंख्य लम्हों के लिए नहीं बल्कि खेल के सबसे भव्य मंच ओलंपिक में एक दिल तोड़ने वाली हार के लिए याद करते हैं। उन्होंने संन्यास लेने के 22 साल बाद आईओए की पहली महिला अध्यक्ष बनकर फिर से इतिहास रचा।
प्यार से ‘पय्योली एक्सप्रेस’ कहलाने वाली उषा ने अपने दो दशक लंबे शानदार करियर के दौरान कई उपलब्धियां हासिल की। चौथी कक्षा में केरल के पय्योली में अपनी सीनियर स्कूल की फर्राटा चैंपियन को हराने वाली दुबली-पतली छात्रा से लेकर 1980 में पाकिस्तान राष्ट्रीय खेलों में हिस्सा लेने वाली और फिर फिर 16 साल की उम्र में मॉस्को ओलंपिक में देश का प्रतिनिधित्व करने वाली उषा ने लंबा सफर तय किया है।
लॉस एंजलिस 1984 खेलों में 400 मीटर बाधा दौड़ के फाइनल में मामूली अंतर से ओलंपिक पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनने से चूकने वाली उषा ने इस बार एक खेल प्रशासक के रूप में एक और बड़ी उपलब्धि हासिल की।
उषा का शीर्ष पद पर चुना जाना पिछले महीने ही तय हो गया था क्योंकि वह अध्यक्ष पद के लिए नामांकन करने वाली एकमात्र प्रत्याशी थी। किसी ने भी उषा का विरोध नहीं किया जिन्हें जुलाई में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने राज्यसभा के लिए नामित किया था।
वर्ष 2000 में संन्यास लेने के बाद उषा ने खेल प्रशासन की ओर कोई झुकाव नहीं दिखाया। हालांकि उन्होंने कोझिकोड के समीप अपने पैतृक स्थल पर अपनी अकादमी – उषा स्कूल ऑफ एथलेटिक्स – में होनहार एथलीटों के मार्गदर्शक के रूप में ट्रैक एवं फील्ड के साथ अपना जुड़ाव जारी रखा।
उन्होंने भारतीय एथलेटिक्स महासंघ (एएफआई) में कोई शीर्ष पद नहीं संभाला लेकिन वह वर्तमान में इसकी जूनियर चयन समिति की अध्यक्ष हैं। वह सरकार की राष्ट्रीय पुरस्कार समितियों से भी जुड़ी रही हैं।
आईओए अध्यक्ष पद पर उनके प्रशासनिक कौशल की परीक्षा होगी लेकिन वह अपने मन की बात कहने से नहीं हिचकिचाती हैं जैसा कि उन्होंने 2009 में एएफआई के खिलाफ किया था जब भोपाल में एक राष्ट्रीय चैंपियनशिप के दौरान कथित तौर पर उनके लिए रहने की उचित व्यवस्था नहीं की गई थी। एएफआई ने हालांकि दावा किया था कि यह घटना ‘संवादहीनता’ के कारण हुई थी।
उषा के अध्यक्ष चुने जाने से आईओए में गुटीय राजनीति के कारण पैदा हुआ संकट भी समाप्त हो गया। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) ने इस महीने चुनाव नहीं कराने की दशा में आईओए को निलंबित करने की चेतावनी दी थी। चुनाव उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त किए गए उसके पूर्व जज नागेश्वर राव की देखरेख में संपन्न हुए।
आईओए का नया संविधान भी तैयार किया गया। नए संविधान के तहत भारत के किसी भी नागरिक के लिए आईओए चुनाव लड़ने के लिए दरवाजा खोल दिया गया था, यदि वह राष्ट्रीय खेल संघों और उत्कृष्ट योग्यता वाले खिलाड़ियों (एसओएम) के प्रतिनिधियों से बने निर्वाचक मंडल में है जिन्हें नवगठित खिलाड़ी आयोग द्वारा चुना जाना था।
इन सभी ने उषा के देश के खेल प्रशासन के शीर्ष अधिकारी के पद पर काबिज होने का रास्ता साफ कर दिया क्योंकि वह एसओएम में शामिल थी।
उन्होंने 2000 में संन्यास लेने के ठीक बाद कहा था, ‘‘मैं संतुष्ट हूं क्योंकि मैंने ओलंपिक पदक को छोड़कर सभी लक्ष्य हासिल कर लिए हैं। अब मैं यह सुनिश्चित करना चाहती हूं कि मेरा शिष्य एक पदक (ओलंपिक पदक) जीते।’’
भाग्य को उनके लिए कुछ और ही मंजूर था क्योंकि उषा 95 साल के इतिहास में आईओए की प्रमुख बनने वाली पहली ओलंपियन और अंतरराष्ट्रीय पदक विजेता खिलाड़ी बनीं। वह महाराजा यादवेंद्र सिंह के बाद आईओए प्रमुख बनने वाली पहली खिलाड़ी भी हैं। यादवेंद्र सिंह ने 1934 में एक टेस्ट मैच खेला था। वह तीसरे आईओए अध्यक्ष थे और 1938 से 1960 तक आईओए के अध्यक्ष रहे थे।
उषा ने भारत की सबसे सफल एथलीट में शामिल हैं। उन्होंने 1982 से 1994 तक एशियाई खेलों में चार स्वर्ण सहित 11 पदक जीते। उन्होंने 1986 के सियोल एशियाई खेलों में चार स्वर्ण जीते – 200 मीटर, 400 मीटर, 400 मीटर बाधा दौड़ और चार गुणा 400 मीटर रिले जीतने अलावा – और 100 मीटर में रजत भी हासिल किया।
उषा ने 1982 नई दिल्ली एशियाई खेलों में 100 मीटर और 200 मीटर में पदक जीते। उन्होंने 1983 से 1998 तक एशियाई चैंपियनशिप में सामूहिक रूप से 100 मीटर, 200 मीटर, 400 मीटर बाधा दौड़, चार गुणा 100 मीटर रिले और चार गुणा 400 मीटर रिले में 14 स्वर्ण सहित अभूतपूर्व 23 पदक जीते।
उन्हें हालांकि सबसे अधिक लॉस एंजलिस ओलंपिक 400 मीटर बाधा दौड़ फाइनल के लिए जाना जाता है जहां उन्हें फोटो फिनिश में रोमानिया की क्रिस्टियाना कोजोकारू ने सेकेंड के सौवें हिस्से से हराया था जिससे वह कांस्य पदक से वंचित रह गईं।
केरल के कोझिकोड जिले के पय्योली शहर के पास कुट्टाली गांव में एक साधारण परिवार में जन्मी उषा ने बहुत कम उम्र में अपनी दौड़ का कौशल दिखाया। उसने पास के पय्योली में अपने स्कूल की चैंपियन धावक को हराया जो उससे तीन साल बड़ी थी। वह तब सिर्फ नौ साल की थी। इसके बाद उषा को केरल सरकार द्वारा स्थापित खेल स्कूल में भेजा गया जहां उन्हें मासिक वजीफा भी मिला।
वर्ष 1977 में उनकी विलक्षण प्रतिभा ने प्रसिद्ध कोच ओम नांबियार का ध्यान आकर्षित किया जिनका पिछले साल निधन हो गया। नांबियार ने उषा को एशिया में अपने समय की फर्राटा क्वीन ओर देश की महानतम खिलाड़ियों में से एक में ढाला।
उषा ने 1980 में पाकिस्तान के राष्ट्रीय खेलों में हिस्सा लिया और उसी वर्ष मॉस्को ओलंपिक में 16 साल की उम्र में भारतीय टीम का हिस्सा बनीं। 1980 के ओलंपिक में उषा चमक नहीं पाईं लेकिन उन्होंने 1982 के एशियाई खेलों में घरेलू दर्शकों के सामने सुर्खियां बटोरते हुए 100 मीटर और 200 मीटर दोनों में रजत पदक जीता।
वह 1983 एशियाई चैंपियनशिप में 200 मीटर में रजत पदक जीतने में सफल रही और जब उन्होंने 400 मीटर में स्वर्ण जीता तो नांबियार ने सुझाव दिया कि वह 400 मीटर बाधा दौड़ में भाग लेने का प्रयास करे। उस सलाह के कारण 1984 के ओलंपिक में वह इतिहास रचते हुए चौथे स्थान पर रहीं।
लॉस एंजलिस में उषा का 55.42 सेकेंड का प्रयास अब भी महिलाओं की 400 मीटर बाधा दौड़ का राष्ट्रीय रिकॉर्ड है।
उन्होंने 1990 में संन्यास की घोषणा की, अगले साल शादी की और 1994 के हिरोशिमा एशियाई खेलों में चार साल बाद ट्रैक पर लौटीं जहां उन्होंने रजत पदक जीता। 1995 में उनके घुटने का ऑपरेशन हुआ था और 2000 के सिडनी ओलंपिक से ठीक पहले उनके अद्वितीय करियर पर विराम लगा।
Source: PTI News